शाम की सिंदूरी सी कालिमा
पर नए रंगों की परत
यों पुतती गई
मानो
कहीं किसी गाँव के
किसी छप्परनुमा झोपड़ी
के चार शहीद के
गुमनाम अक्सों के
खून से सनी
अबतक धूल-धूसरित हो चुके
सरकारी कागजों,
कानूनी दस्तावेजों
और कानूनी लबादों पर
दुबारा प्रशासनिक
स्याहियाँ पुतती जा रही हों।
रात गहराती जाती है
और उसी तरह गुम होता जाता है आकाश
घुप्प अँधेरे मैं।
वैसे ही यह खून
सूख कर चिपक चुका है
अबतक
कार्यालयी ज़ेहन में।
मिटता जा रहा है अस्तित्व
परत-दर-परत पुतती हुई
स्याहियों के इन्द्रधनुष में ।
क्या कहूँ इसे?
नव छंद?या
नया सवेरा?
या बासी पड़ी
एक सूखी सी रोटी
के लिए होती
ज़द्दोज़हद