Friday, November 18, 2011

क्यों और मैं

शाम का धुंधलका.
खुली छत
बुढ़ाता आसमान
हल्की सी हवा
खड़ी मैं .

एक अजीब सी ज़िद
बिना बात की
गुत्थी सुलझाने की ज़िद.
कई क्यों के जवाब को
हर गली में छान मारती.

माथे पर बल
उछ्रिन्खल कल्पनाएँ
बनावटी धैर्य
एक फीकी मुस्कान में लपेटती
कई प्रश्नवाचक नज़रों का उत्तर.
पर मन संतप्त
उस क्यों के लिए बेचैन.

सिगरेट की आखिरी कश
लम्बी, खिंची सांस
सिगरेट का अंतिम सिरा
जला हुआ.
ध्यान भटका.
और इधर
उफ़!
हाथ जला.

अस्तित्वबोध!