Thursday, June 21, 2012

उदास सी खुशबू

एक उदास  सी खुशबू ने आज अनायास  ही झकझोर दिया. आज की बेशर्म सुबह भी कल जैसी ही थी, परसों जैसी ही. कुछ भी तो नया नहीं था. लेकिन उस बासी हो चुकी खुशबू ने पुराने अरमानों में मानो आग लगा दी.

सुबह की ओस अभी गीली ही थी. भीनी भीनी सी धूप हौले हौले - दूब से, पत्तों से - ओस को चाटती पसरती जा रही थी. अपनी ही दुनिया में मस्त मेरी महत्वाकांक्षाएं, मैं खुद, बस खानापूर्ति के लिए नंगे पाँव घास पे टहल रही थी. तभी वह उजास सी खुशबू, कुछ उदास सी खुशबू मुझे हलके से छू गई. मुझे पता चला भी. यही तो दुःख का कारण है. 

वैसी ही खुशबू कल तक अपने गाँव में हुआ करती थी. मिट्टी की, गोबर से लीपे गए आँगन की, गरम चूल्हे पर डाले गए पानी के बूंदों की - ठीक वैसी ही खुशबू. हो सकता है बारिश हुई हो. या हो सकता है बारिश होने वाली हो. कौन जाने कहाँ से प्रेरित होकर आई यह खुशबू.

लेकिन इस पार्क में इतनी सुबह इस खुशबू का औचित्य समझ नहीं आया. डियोद्रेंट की तेज़  महक से, पेट्रोल, डीज़ल  की तीखी गंध से छिपती-छिपती, बचती-बचाती ये खुशबू न जाने कैसे एक बार तैर गई?  या हो सकता है मेरे खोजी दिमाग ने अब अनायास आई चीज़ों को लेना ही बंद कर दिया है. हर वक़्त कारण-परिणाम सम्बन्ध खोज पाने की होड़. पर यह खुशबू थी बड़ी ज़बरदस्त. लेकिन उदास.

छोटी सी थी जब बाबा के कन्धों पर चिपटी, दादी के हाथों से दूध का चम्मच मुंह में उड़ेलती थी. थोड़ी बड़ी हुई तो चूल्हे के पास बैठकर गरम गरम रोटियों पर मक्खन लगा कर मिसरी और बादाम के साथ सुबह का नाश्ता करती थी. थोड़ी और बड़ी हुई तो अलसुबह उठकर उसी चूल्हे पर बाबा के लिए कड़क चाय बनाती थी.

अब सब ख़त्म हो गया है. महानगर के इस कॉन्क्रीट के जंगल में हरी घास बस सुन्दरता का प्रमाणपत्र भर लिए पार्क में फैली होती है. मिट्टी सिर्फ बालकनी के गमलों में एक-आध कैक्टस के पौधों को समेटने में लगी रहती है. मैं भी क्या कम हूँ? पता नहीं क्यों, बिना किसी बात के चूहे की दौड़ में शरीक वो सब भूल कर  न जाने क्या पाने में लगी हूँ?

यह बस कल्पना मात्र है. कहा न कल वाली ही सुबह है. कल वाली ही बात है. दिमागी फितूर है ये सब. जो लौट गया, जो बीत गया, वो आता थोड़े ही न है. यही समझती, खुद को नकारती, मैंने खुशबू को खुद में समेट लिया. ऐसा समेटा की अब बस उसकी उदासी भर ही बच पी है. नेपथ्य में सब ख़त्म हो जायेगा. सब कुछ. न रहूंगी मैं, न खुशबू....रह जाएगी बस एक उदासी...एक रिरियाती सी कामना. 

Friday, June 8, 2012

Installed Desires - Part 9

धौंकनी सी धूप बेतरतीब फ़ैल चुकी थी. छत पर अजीब सी शांति पसरी थी. शायद मिथ्या के जाने के बाद की, अपनी नियति की स्वीकृति जैसी शांति. पिछले सात सालों का बोझ उतर कर नए रूप में हावी हो रहा था. कौशल समझ कर भी मानना नहीं चाह रहा था की मिथ्या जा चुकी है. शायद हमेशा के लिए.

उसने चिट्ठी खोली. उसके सिरहाने रखी थी. मोबाइल के नीचे. इस तरह से की उठते ही उस पर नज़र पड़े. और इस तरह भी की अनजाने में भी नींद के दौरान कहीं कागज मसल न जाये. लापरवाह सावधानी के साथ. वही सपाट से किन्तु रोचक शब्द. लेकिन इस बार उनमें तल्खी थोड़ी अधिक थी. या शायद आज कौशल को ऐसा लगा.

"तुम जरूर ग्यारह बजे के करीब जागोगे. कांता जब घर की सफाई कर ले, उसे पैसे दे देना. मैंने फ्रिज के ऊपर रख दिया है. दूध का पाकेट मंगवा दिया है. इस महीने बिजली का बिल मैंने जमा कर दिया है. केबल वाले को देने के लिए पैसे बचे नहीं थे. उसे दे देना. घर की चाबी भी फ्रिज के ऊपर है. तुम्हारी दवा ख़त्म हो गई थी. मैंने फ्रेश स्टॉक रख दिया है. तुम्हारी टेबल पर है. बिष्ट जी के घर जो शाम की पार्टी है उसके लिए गिफ्ट भी पैक करवा दिए थे. मेरे आलमारी में रखा है. आशा है कि कोई परेशानी छोड़ कर नहीं जा रही. अगर कुछ हो भी, तो संभाल लेना. अपना ख्याल रखना. कोशिश करना सिगरेट थोडा कम पियो. कम्पलीकेशंस बढ़ सकती हैं."

कौशल ने समय देखा ग्यारह बजकर पांच मिनट हो रहे थे. मिथ्या कि फ्लाईट जा चुकी थी. समय सात साल के इतिहास और वर्तमान में फैला गंभीर बैठा था. कौशल ने सिगरेट सुलगाई और छत पर जा बैठा. एक अजीब सी मुस्कराहट तैर रही थी चेहरे पर. वह खुश था या नहीं यह समझ ही नहीं पा रहा था. शायद पिछले कुछ सालों में संवेदना का कोई स्वर उसके अन्दर फूटता ही नहीं था. "बेस्ट बिज़नसमन ऑफ़ द इयर" के ख़िताब को लेने समय जो भावहीनता उसके चेहरे पर थी, वही भावहीनता तब भी थी जब मिथ्या ने वकील से तलाक कि बात की थी. कुल मिला कर कोई भी घटना उसे अब उद्वेलित नहीं करती.

उसने ऑफिस फोन किया. सेक्रेटरी को कह दिया कि घर पर ही फाइल्स भेज दे. खाना आर्डर करवा लिया.

बाथरूम में जाते ही उसने महसूस किया कि जितनी जतन से सफाई कि गई थी कि मिथ्या का एक भी अंश, उसके यहाँ सात साल रहने के प्रमाण लगभग हर कोने से मिट चुके थे. न आईने पर उसकी बिंदी के निशान थे, न उसके साबुन, शेम्पू, परफ्यूम कि कोई भी महक, कोई भी बूँद. एक बार फिर एक हलकी सी मुस्कराहट तैर आई. चेतन मन से की जाने वाले ये तमाम कोशिशें एक बेहद भौंडे रूप से अतीत को परोसती हैं. बहरहाल, स्तिथि यह कि मिथ्या जा चुकी है.

कौशल ने चिट्ठी में लिखी बातों के अनुसार सारे काम किये. दवाइयों को सहेज कर बेड के पास रख लिया. चिट्ठी कूड़े वाले के डब्बे में डाल दी. अपने फोन का सिम बदल लिया. एक बार मन हुआ कि पूछ ले कि वह रित्विका के पास पहुँच गई है या नहीं. पर फिर एक सिगरेट जलाई और छत पर खड़ा हो गया.

सड़कें सुनसान थी. छत पर कपड़ों की तार ढीली होकर लटक रही थी. मन हुआ कि काट फेंके उसे भी. पर फिर....शायद यह एक अंतिम सा प्रमाण है उसके रहने का...फिर वही मुस्कराहट. कौशल सोच रहा था कि मन से कैसे निकाल दूँ ये सात साल? कैसे काट फेंकू वो सब कुछ जो जैसे भी रहे, थे. उनका अस्तित्व भी उतना ही सच है जितना कि यह कि मिथ्या और कौशल एक साथ रह नहीं सकते. और अब एक दूसरे को देखना तक नहीं चाहते. एक शादी जो वक़्त के थपेड़ो के साथ सिर्फ एक साझापत्र मात्र बन कर रह गई थी. एक रिश्ता जो होकर भी नहीं था. कौशल ने आज की पांचवी सिगरेट सुलगाई.

उधर मिथ्या ने एअरपोर्ट पर उतरते ही कौशल के ऐशट्रे को कूड़ेदान में डाला. और आँखों में थिरक आये आंसुओं को झटकते हुए काले चश्मे को पहन लिया. आज से वो एक नयी शुरुआत करेगी. वैसे ही जैसे उसने एक बार कॉलेज के दिनों में अनुवंश के साथ सोचा था. आज वह आजाद थी. न कोई अनुवंश था, न कोई कौशल. न वाधवा खानदान कि बहू और न ही आहूजा खानदान की बेटी. वह मिथ्या थी. एक झूठा सा दिखता सच. एक सच सा दिखता झूठ.