Sunday, November 20, 2011

मैं और सुबह


बेशर्म सी सुबह
मुंह उठाये चली आती है.
हर रोज़ -
बिना पूछे.

नेपथ्य में एक और दिन बीत जाता है
और उसके साथ ही एक संभावना.

बड़ी अजीब सी दुनिया है यहाँ
जहाँ किश्तों में ही ज़िन्दगी का रंग है
जहाँ तिल तिल कर जीना ही
एकमात्र सच है.

इसलिए बस एकदम ऐसे ही
तिल तिल कर आती है ज़िन्दगी
हर रोज़
बिना बुलाये
मेरे पास
सुबह की बासी उबासी में लिपटी
रात के सपनों का क़र्ज़ उठाये
शायद एक नई उम्मीद की खातिर
या शायद
ज़िन्दगी को जीने का बहाना बनाने.

कौन जाने क्या बला है
हर वह कल वाली सुबह
कल वाला ही दिन
कल वाली ही बात.