Monday, August 27, 2012

संस्कृति और श्रिंगार


बस एक बार ही हाथ फेरा था मैंने
बिस्तर की सारी सिलवटें खो गईं
उस रात के सारे प्रमाण खो गए
कैसे जोड़ोगे टूटे लम्हों को अब
मेरे जाने के बाद.

यह ज़रूरी तो नहीं
की इतिहास के मार्फ़त ही जिया जाये
और वो भी तब जब नित प्रतिदिन, हर रोज़
नवीनता की परिभाषा भी बदल जाती है

कब तक बासी कमरे की बू को झेलेंगे?
कब तक एक दूसरे के साथ
सड़ांध , मदांध और कैशोर्य तिल तिल कर
घुटते, टूटते देखेंगे?

काफी ठंडी, तरावट वाली हवा है
संस्कृति के इस रोमानी शाम की
बाहर रेतीला रेगिस्तान है
सूरज कब का ढल चुका है
झुलसा दिन ठहरते ठहरते
ठंडा हो चुका है

खिड़की खोल दो
थोड़ी ताज़ी हवा आने दो.

Installed desires - Part 10

शाम की गुनगुनाती सी तन्हाई. और तुम ठीक वैसे ही याद आये जैसे तुम मेरी ज़िन्दगी में आये - अचानक, एकदम से.

रित्विका ने अपने आंसुओं को रोकने की भरसक कोशिश की. उसने सबकी सहमति में खुद की सहमति को आरोपित कर दिया था. धृतिमान को हाँ कह दिया था. किस लिए हाँ कहा था - यह तय कर पाना मुश्किल था. हाँ स्वीकारना भी होता है, समर्पण भी, समझौता भी, सुलह भी, समाधान भी. कई बार मौन विद्रोह भी होता है एक बार बस हाँ कह देना.

धृतिमान ने बड़ा अचकचाया सा प्रश्न पूछा था. "क्या तुम मुझे खुद को सौपने दोगी? मैं तुममें खुद को तलाशना चाहता हूँ. एक तलाश भर की ही चाह है. स्वीकारोगी मेरी तलाश को?"

प्रत्याशित यह था कि वो पूछे, "क्या तुम मुझे अपनाओगी? क्या तुम खुद को सौपोगी? मैं पाना चाहता हूँ तुममें अपने आप को."

तब शायद आसान होता उसके लिए. एक असमंजस सा भाव उमड़ आया था रित्विका के चेहरे पर. सहम सी गई थी वो. पता नहीं क्यों एक ही झटके में सब कुछ टूटता सा, टूट कर बनता सा नज़र आ रहा था उसे. वह निर्णीत नहीं कर पा रही थी खुद को. यहाँ जिम्मेवारी थी. पहली बार प्रेम की स्वतंत्रता को छीनती, प्रेम में बंधने वाली आजादी थी. पता नहीं वो तैयार हो भी पाई थी या नहीं. और इसी ऊहापोह में, शाम की उस पारिवारिक पार्टी के एक ज़हीन से कोने में जब चुपके से धृतिमान ने उसे वाईन थमाते हुए पूछा था, तब स्तब्ध रह गई थी वो.

रित्विका ने गौर से धृतिमान की आँखों में देखा. कोशिश की कि पढ़ पाए कि उन में क्या कुछ समेटा, उनसे क्या कुछ बिखेरा जा रहा रहा है. प्रेम का जो स्वरुप उसने विहंस में, विहंस के लिए देखा था उसमें और इसमें वो उलझ कर रह गई थी. शायद अपनी अपूर्णता को विधिसम्मत करने का जरिया था विहंस के साथ उसका रिश्ता. उसमें अपेक्षा थी, इसलिए आंसू थे, हैं भी. उसमें टूटने की चाह थी. समेटा सब कुछ बिखेरने की तलब की. अपने स्वत्व, अपने अपनत्व, अपने सारांश को एक धुरी पर केन्द्रित करने की चिर संचित अभिलाषा थी. कुल मिला कर एक पारस्परिक अन्योन्यता थी.

इस अंतराल में धृतिमान ने रित्विका को जिस तरह चूमा था, उसमें चाह कम, समर्पण ज्यादा था. उसमें एक निराश सी, मायूस सी आकांक्षा थी कुछ ढूँढने की, कुछ ढूंढती सी. ऐसा लग रहा था मानो सब कुछ भूल कर एक रिश्ता बनाना चाहता था वो. रित्विका के मन में अजीब सी उधेड़बुन थी. एक तरफ उसकी चाहत थी और एक तरफ उसकी चाह. दोनों के परस्पर द्वंद्व से उत्पन्न इस स्तिथि में उसने धृतिमान के आलिंगन में स्वयं को डूबते देखा. पता नहीं वह स्पर्श आश्रय ढूंढ रहा था या तलाश. ठहराव चाहता था या नई खोज. इन प्रश्नों को वक़्त के हवाले करते हुए रित्विका ने धृतिमान का हाथ पकड़ लिया और धृतिमान ने हलके से रित्विका के बालों को सहलाते हुए कहा, "पार्टी ख़त्म होने तक बात आज बात लोगों तक पहुंचानी है."

रित्विका की आखों से आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. शायद वाइन का खुमार था, शायद पहली बार किसी की तरफ जिम्मेवारी का एहसास था. शायद पहली बार एक बंधन में स्वतंत्र होने का निवेदन था. शायद एक बार प्यार करने की नहीं बल्कि प्यार पाने में सुख ढूँढने का निर्णय था. शायद एक बार फिर कुछ खोने, कुछ पाने का एहसास था. जो भी था, अभी इस वक़्त धृतिमान के कंधे पे रखा सर, आँखों से बहते आंसू और उन दो आँखों का स्नेहिल, मादक स्पर्श उसे बार बार बिखरने को उकसा रहा था. रित्विका ने कांपती आवाज़ से, हलके से 'हाँ' कहा. और फिर मानो यथार्थ ही बदल गया.