If life is about exploration,i am ready to expedite the process........words might ease out the journey....
Monday, August 27, 2012
संस्कृति और श्रिंगार
बस एक बार ही हाथ फेरा था मैंने
बिस्तर की सारी सिलवटें खो गईं
उस रात के सारे प्रमाण खो गए
कैसे जोड़ोगे टूटे लम्हों को अब
मेरे जाने के बाद.
यह ज़रूरी तो नहीं
की इतिहास के मार्फ़त ही जिया जाये
और वो भी तब जब नित प्रतिदिन, हर रोज़
नवीनता की परिभाषा भी बदल जाती है
कब तक बासी कमरे की बू को झेलेंगे?
कब तक एक दूसरे के साथ
सड़ांध , मदांध और कैशोर्य तिल तिल कर
घुटते, टूटते देखेंगे?
काफी ठंडी, तरावट वाली हवा है
संस्कृति के इस रोमानी शाम की
बाहर रेतीला रेगिस्तान है
सूरज कब का ढल चुका है
झुलसा दिन ठहरते ठहरते
ठंडा हो चुका है
खिड़की खोल दो
थोड़ी ताज़ी हवा आने दो.
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kaafi achha.... itna bhavpoorn... shabdo ki jadugarni..
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