एक उदास सी खुशबू ने आज अनायास ही झकझोर दिया. आज की बेशर्म सुबह भी कल जैसी ही थी, परसों जैसी ही. कुछ भी तो नया नहीं था. लेकिन उस बासी हो चुकी खुशबू ने पुराने अरमानों में मानो आग लगा दी.
सुबह की ओस अभी गीली ही थी. भीनी भीनी सी धूप हौले हौले - दूब से, पत्तों से - ओस को चाटती पसरती जा रही थी. अपनी ही दुनिया में मस्त मेरी महत्वाकांक्षाएं, मैं खुद, बस खानापूर्ति के लिए नंगे पाँव घास पे टहल रही थी. तभी वह उजास सी खुशबू, कुछ उदास सी खुशबू मुझे हलके से छू गई. मुझे पता चला भी. यही तो दुःख का कारण है.
वैसी ही खुशबू कल तक अपने गाँव में हुआ करती थी. मिट्टी की, गोबर से लीपे गए आँगन की, गरम चूल्हे पर डाले गए पानी के बूंदों की - ठीक वैसी ही खुशबू. हो सकता है बारिश हुई हो. या हो सकता है बारिश होने वाली हो. कौन जाने कहाँ से प्रेरित होकर आई यह खुशबू.
लेकिन इस पार्क में इतनी सुबह इस खुशबू का औचित्य समझ नहीं आया. डियोद्रेंट की तेज़ महक से, पेट्रोल, डीज़ल की तीखी गंध से छिपती-छिपती, बचती-बचाती ये खुशबू न जाने कैसे एक बार तैर गई? या हो सकता है मेरे खोजी दिमाग ने अब अनायास आई चीज़ों को लेना ही बंद कर दिया है. हर वक़्त कारण-परिणाम सम्बन्ध खोज पाने की होड़. पर यह खुशबू थी बड़ी ज़बरदस्त. लेकिन उदास.
छोटी सी थी जब बाबा के कन्धों पर चिपटी, दादी के हाथों से दूध का चम्मच मुंह में उड़ेलती थी. थोड़ी बड़ी हुई तो चूल्हे के पास बैठकर गरम गरम रोटियों पर मक्खन लगा कर मिसरी और बादाम के साथ सुबह का नाश्ता करती थी. थोड़ी और बड़ी हुई तो अलसुबह उठकर उसी चूल्हे पर बाबा के लिए कड़क चाय बनाती थी.
अब सब ख़त्म हो गया है. महानगर के इस कॉन्क्रीट के जंगल में हरी घास बस सुन्दरता का प्रमाणपत्र भर लिए पार्क में फैली होती है. मिट्टी सिर्फ बालकनी के गमलों में एक-आध कैक्टस के पौधों को समेटने में लगी रहती है. मैं भी क्या कम हूँ? पता नहीं क्यों, बिना किसी बात के चूहे की दौड़ में शरीक वो सब भूल कर न जाने क्या पाने में लगी हूँ?
यह बस कल्पना मात्र है. कहा न कल वाली ही सुबह है. कल वाली ही बात है. दिमागी फितूर है ये सब. जो लौट गया, जो बीत गया, वो आता थोड़े ही न है. यही समझती, खुद को नकारती, मैंने खुशबू को खुद में समेट लिया. ऐसा समेटा की अब बस उसकी उदासी भर ही बच पी है. नेपथ्य में सब ख़त्म हो जायेगा. सब कुछ. न रहूंगी मैं, न खुशबू....रह जाएगी बस एक उदासी...एक रिरियाती सी कामना.