ट्रेन जब स्टेशन पर रुकी तो रुचिका ने अपने बेटे को गोद में उठाते हुए एक चौकलेट थमा दिया. सामने रजनीगंधा के फूलों पे नज़र पड़ी तो अचानक अतीत के पन्नो से कुछ शब्द छिलक आये. कभी कभी सोचती हूँ कि जीवन के जिस जिस मोड़ को छोड़कर आगे बढने की कोशिश की है, क्या वे कभी टकराने की गुस्स्ताखी नहीं करेंगे? मिलना तो नहीं चाहती उन बीते, रीते लम्हों से, पर सोचती हूँ कि अगर कभी टकराकर मिल गई उस से तो क्या खुद को इस नई मैं में छ्पुती छुपाती उसे बिलकुल अपेक्षित कर पाऊँगी ?
"हवाओं की तरह तुम मुझसे मुखातिब हुए. दूर किसी पथरीले चट्टान पर, चुपचाप, मैं खड़ी हवाओं से बातें कर रही थी. तुमने अचानक मेरी मासूम दुनिया में दस्तक दिया.मैं थोडा अचकचाई, थोडा सा घबराई - पर कहीं ऐसा लगा जैसे ज़िन्दगी किसी अनुभव से टकरा गई हो. मेरा रोम रोम पुलकित था. न जाने मन में कैसे भाव उमड़ रहे थे. तुमने मुझे अपने आप से वाकिफ कराया. शायद मैं काफी अनजान थी. धीरे धीरे खुद को जानने और समझने लगी. अपने आप को पहचानने लगी. कल तक मैं जिंदगी जी रही थी. तुमसे मिलकर पता चला कैसे जी रही हूँ. कल तक मैं रिश्तों को समझती थी. तुमसे मिलकर उन्हें निभाने की सीख मिली. तुमने मुझे हर इंसान का महत्त्व समझाया. मैं स्वयं होकर भी स्वयं से सबको जोड़कर महसूस करने लगी. शायद काफी अजीब हो सब कुछ. पर मुझसे बिन कुछ कहे, तुमने मुझे काफी समझदार बना दिया. हमारी आपसी बात काफी कम हुई लेकिन तुम्हारे द्वारा कहे गए कुछ गिने चुने अल्फाज़ भी मेरी ज़ेहन में उतर गए. तुम दूर होकर भी हर पल मेरे पास खड़े मुस्कुराते रहते. और तुम्हे शायद पता न हो पर मैं स्मृतियों के पटल पर ही सही पर तुम्हारे आस पास मंडराती रहती. फिर जिस तरह सोपान दर सोपान तुमसे करीब हुई थी, उसी तरह कदम दर कदम खुद को तुमसे अलग करने की कोशिश करने लगी. तुमसे जुड़कर ही समझ पाई की हर बार पाना प्यार नहीं होता. वह तो निरा स्वार्थ होता है. किताबों में पढ़ा था की त्याग भी प्यार का ही एक रूप होता है. लेकिन मैंने त्याग नहीं किया. त्याग तो उसका किया जाता है जिसे कभी पाया गया हो. मैं तो यह भी नहीं जानती की तुम मुझसे जुड़े हो भी या नहीं. और हाँ मैं सांसारिक शब्दकोष में अपने एहसास को बांधकर खोना नहीं चाहती. धीरे धीरे मैंने तुमसे जुड़े हर एक निशाँ को मिटने की कोशिश की. कई बार लिखे शब्दों को दोबारा लिखा पर कोशिश की कि तुम्हारे शब्दों को, तुमसे जुड़े अल्फाजों को खुद से अलग कर दूँ. हाँ, यादें हैं जो नहीं जाती.कोशिश करुँगी कि वे भी कहीं किसी तरह गुम हो जाएँ. उन्हें भी कहीं दफना दूँ. सुना है वक़्त के साथ स्मृतियाँ भी धुंधली पड़ जाती हैं . शायद समय के इस अनवरत क्रम में तुम भी मेरे अतीत की अतल गहराइयों में समा जाओ. बस एक ही गुज़ारिश है, कोशिश करना कि मेरे अतीत से बाहर झांककर मेरे वर्तमान में दस्तक मत देना. मैं शायद एक बार फिर दोबारा अपने आप को संभाल न सकूँ. बड़ी मुश्किल से एक कदम उठाया है. इसके बाद शायद और हिम्मत न बची हो मुझमे.
इतनी दूर चले आने के बाद इसे पढ़कर साहिल ने बस इतना ही कहा, "बस एक बार कह तो दिया होता, रुचिका." और रुचिका ने एक लम्बे अन्तराल के बाद कहा, " साहिल, अगर तुम सब जानकर भी चुप रहे, तो यह प्यार नहीं एक प्रतिद्वन्द था. और मुझे बस तुम चाहिए थे. तुम्हारी जीत की शायद कद्र ही नहीं कर पाती मैं."