खाली अधूरे पन्ने पर कुछ शब्द लिखे थे मैंने-
तुम्हारे जाने के बाद।
अभी तक दीवारों पे लगे
मकड़ी के जालों को हटाया नहीं,
कोने में जमी धूल साफ़ तक नहीं की।
बहुत समझाया खुद को
कि दुबारा समेट लूँ
बिखरे उन लम्हों को-
तुम्हारे जाने के बाद ।
पर अब जा कर समझी हूँ कहीं
कि जाने के बाद लौट कर कोई आता नहीं।
तो धूप को आँचल पे,
धूल को तन पे,
शब्दों को मन में
दफ़न कर रखने कि ख्वाहिश
खुद को बहलाने का धोखा है।
और ठगना तुमने सिखलाया नहीं
सीख भी तो नहीं पाई-
तुम्हारे जाने के बाद।
If life is about exploration,i am ready to expedite the process........words might ease out the journey....
Friday, April 15, 2011
कमरा और मैं
कोने में दुबकी सुबह की धूप ने
जब अंगड़ाई ली
तो कमरे में बेतरतीब फ़ैल गई।
उदास सी ठहरी बासी हवा में
एक उबासी भरी बात घोल गई ।
इन दीवारों से मैंने पूछा -
आज अगर इस धूप के नाम कुछ संदेस देना हो तो क्या दोगे?
उसने मुस्कुराकर अपने सीने से लगी खिडकियों को खोला
और कहा-
बस इसी तरह
हर सुबह
वो चुपके से मेरी पीठ से लिपट जाया करे
इस कमरे कि उबासी में
धुली धूप घोल जाया करे।
मैंने आश्चर्य से अपनी आँखें फैलाईं
कहा-
क्या बस इतनी सी संवेदना काफी है?
दीवार दुबारा मुस्काई
उसने सलीके से अपने कोने कि धूल झारी
और स्फुट स्वर में बोली-
यही काफी है इस घर का
और घर के बाहर का
अँधेरा दूर भगाने के लिए।
और इससे ज्यादा की उम्मीद
धूप से करना
नाइंसाफी है ।
मैंने खिड़की से बाहर झाँका ।
बाहर हरी मखमली घास पर,
इस ओर से उस ओर ,
क्षितिज के विस्तार तक
हरी पीली सुबह
जीजिविषा कि ओस में नहाये
अपने दांत फैलाये
चहुँ ओर मुस्कुरा रही थी।
जब अंगड़ाई ली
तो कमरे में बेतरतीब फ़ैल गई।
उदास सी ठहरी बासी हवा में
एक उबासी भरी बात घोल गई ।
इन दीवारों से मैंने पूछा -
आज अगर इस धूप के नाम कुछ संदेस देना हो तो क्या दोगे?
उसने मुस्कुराकर अपने सीने से लगी खिडकियों को खोला
और कहा-
बस इसी तरह
हर सुबह
वो चुपके से मेरी पीठ से लिपट जाया करे
इस कमरे कि उबासी में
धुली धूप घोल जाया करे।
मैंने आश्चर्य से अपनी आँखें फैलाईं
कहा-
क्या बस इतनी सी संवेदना काफी है?
दीवार दुबारा मुस्काई
उसने सलीके से अपने कोने कि धूल झारी
और स्फुट स्वर में बोली-
यही काफी है इस घर का
और घर के बाहर का
अँधेरा दूर भगाने के लिए।
और इससे ज्यादा की उम्मीद
धूप से करना
नाइंसाफी है ।
मैंने खिड़की से बाहर झाँका ।
बाहर हरी मखमली घास पर,
इस ओर से उस ओर ,
क्षितिज के विस्तार तक
हरी पीली सुबह
जीजिविषा कि ओस में नहाये
अपने दांत फैलाये
चहुँ ओर मुस्कुरा रही थी।
ठूंठ
उस ठूंठ को देखा है मैंने कई बार
इसी तरह
कड़ी धूप में, बर्फीली सर्दी में
बस ऐसे ही खड़े-
निर्विकार, निर्लिप्त।
इस पेड़ की टूट गई हैं सारी पत्तियां
ठूंठ हो गई हैं सारी टहनियां
झर गई है कोपलें
तिक्त हो गया है सारा सौंदर्य।
फिर भी शायद
अपनी जड़ों को धरती में संजोये
उनमे थोड़ी बहुत,
टूटी फूटी जीजिविषा बचाए
इस धूप में खड़ा है वो पेड़।
इसी तरह
कड़ी धूप में, बर्फीली सर्दी में
बस ऐसे ही खड़े-
निर्विकार, निर्लिप्त।
इस पेड़ की टूट गई हैं सारी पत्तियां
ठूंठ हो गई हैं सारी टहनियां
झर गई है कोपलें
तिक्त हो गया है सारा सौंदर्य।
फिर भी शायद
अपनी जड़ों को धरती में संजोये
उनमे थोड़ी बहुत,
टूटी फूटी जीजिविषा बचाए
इस धूप में खड़ा है वो पेड़।
मेरे अजीज़ दोस्तों को समर्पित...:)
दूर नज़र दौरे तो दिखी बस रेत
बड़ा सा रेगिस्तान
न शाम, न पैगाम।
नंगे पैरों से दो कदम बढ़ाया ही तो था
की गिर पड़ी लड़खड़ाकर
दरअसल धुंधली थी आँखें अपनों का साथ छोड़कर ।
तुम सबने हाथ बढ़ाया, हंसना सिखाया,
हर पल को गले लगाकर मुस्कुराना सिखाया।
बस शुरू हुई ही तो थी हमारी कहानी
कि ज़िन्दगी ने आवाज़ दी .
चल पड़ी एक ऐलान के साथ-
"जंग पड़ी है दोस्त, पार करो इस सैलाब को।"
छूट गए तुम सब,
तुम्हारा साथ, तुम्हारा हाथ।
रेतीली बर्फीली हवा का एक झोंका
आँखों को चुभन दे गया।
कई यादों का एक सिलसिला बयां कर गया
पर न तुमलोग थे
न थी हमारी हंसी।
आगे था एक बड़ा सा रेगिस्तान
न शाम, न कोई भी पैगाम.
बड़ा सा रेगिस्तान
न शाम, न पैगाम।
नंगे पैरों से दो कदम बढ़ाया ही तो था
की गिर पड़ी लड़खड़ाकर
दरअसल धुंधली थी आँखें अपनों का साथ छोड़कर ।
तुम सबने हाथ बढ़ाया, हंसना सिखाया,
हर पल को गले लगाकर मुस्कुराना सिखाया।
बस शुरू हुई ही तो थी हमारी कहानी
कि ज़िन्दगी ने आवाज़ दी .
चल पड़ी एक ऐलान के साथ-
"जंग पड़ी है दोस्त, पार करो इस सैलाब को।"
छूट गए तुम सब,
तुम्हारा साथ, तुम्हारा हाथ।
रेतीली बर्फीली हवा का एक झोंका
आँखों को चुभन दे गया।
कई यादों का एक सिलसिला बयां कर गया
पर न तुमलोग थे
न थी हमारी हंसी।
आगे था एक बड़ा सा रेगिस्तान
न शाम, न कोई भी पैगाम.
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