Friday, April 15, 2011

कमरा और मैं

कोने में दुबकी सुबह की धूप ने
जब अंगड़ाई ली
तो कमरे में बेतरतीब फ़ैल गई।
उदास सी ठहरी बासी हवा में
एक उबासी भरी बात घोल गई ।

इन दीवारों से मैंने पूछा -
आज अगर इस धूप के नाम कुछ संदेस देना हो तो क्या दोगे?
उसने मुस्कुराकर अपने सीने से लगी खिडकियों को खोला
और कहा-
बस इसी तरह
हर सुबह
वो चुपके से मेरी पीठ से लिपट जाया करे
इस कमरे कि उबासी में
धुली धूप घोल जाया करे।
मैंने आश्चर्य से अपनी आँखें फैलाईं
कहा-
क्या बस इतनी सी संवेदना काफी है?
दीवार दुबारा मुस्काई
उसने सलीके से अपने कोने कि धूल झारी
और स्फुट स्वर में बोली-
यही काफी है इस घर का
और घर के बाहर का
अँधेरा दूर भगाने के लिए।
और इससे ज्यादा की उम्मीद
धूप से करना
नाइंसाफी है ।

मैंने खिड़की से बाहर झाँका ।
बाहर हरी मखमली घास पर,
इस ओर से उस ओर ,
क्षितिज के विस्तार तक
हरी पीली सुबह
जीजिविषा कि ओस में नहाये
अपने दांत फैलाये
चहुँ ओर मुस्कुरा रही थी।

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