दूर नज़र दौरे तो दिखी बस रेत
बड़ा सा रेगिस्तान
न शाम, न पैगाम।
नंगे पैरों से दो कदम बढ़ाया ही तो था
की गिर पड़ी लड़खड़ाकर
दरअसल धुंधली थी आँखें अपनों का साथ छोड़कर ।
तुम सबने हाथ बढ़ाया, हंसना सिखाया,
हर पल को गले लगाकर मुस्कुराना सिखाया।
बस शुरू हुई ही तो थी हमारी कहानी
कि ज़िन्दगी ने आवाज़ दी .
चल पड़ी एक ऐलान के साथ-
"जंग पड़ी है दोस्त, पार करो इस सैलाब को।"
छूट गए तुम सब,
तुम्हारा साथ, तुम्हारा हाथ।
रेतीली बर्फीली हवा का एक झोंका
आँखों को चुभन दे गया।
कई यादों का एक सिलसिला बयां कर गया
पर न तुमलोग थे
न थी हमारी हंसी।
आगे था एक बड़ा सा रेगिस्तान
न शाम, न कोई भी पैगाम.
बिना दोस्तों के जीवन की कल्पना भी नही की जा सकती. दोस्ती ही जिन्दगी है।
ReplyDelete"जंग पड़ी है दोस्त, पार करो इस सैलाब को।" सम्पूर्ण कविता की सबसे प्रभावशाली पंक्ति।
Thanks again!
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