मैं हूँ कौन किसी के लिए?
काफिले के साथ चलती एक गुमनाम मुसाफिर
कई संदेशों के बीच एक छोटी सी पंक्ति
तल्ख़ भीड़ के दरमयां एक और चेहरा
बस अभी ही
आँखों के सामने से गुजरी अनगिनत में से एक तस्वीर
मैं आखिर हूँ कौन किसी के लिए?
वक़्त और तमन्ना के बीच पसरी एक फालतू अड़चन
रात और दिन के बीच बिखरा एक निरर्थक सन्नाटा
कल्पना और सृजन के मध्य फंसा एक अप्रत्याशित अंतराल
कर्तव्य और कर्म के दरमयां लटकती एक अनापेक्षित फाँस
बिना जाने, बिना देखे
बिना परखे, बिना पहचाने
बिना सुने, बिना कहे-
फटकार दो मुझे
और मेरे साथ लिपटे
तमाम प्रश्नों को
मेरे सवालिया जज्बात को
मेरी भेदती आवाज़ को
क्योंकि मेरी तरह
कितने गुमनाम चेहरों की शिनाख्त करोगे?
कितनी अड़चनो को पार करोगे?
कितने सन्नाटों में आवाज़ ढूंढ पाओगे ?
कितने सवालों का जवाब दोगे?
मैं आखिर हूँ कौन किसी से सवाल पूछने के लिए?
मुझे दर है की कहीं
मेरी अस्तित्व विहीन पहचान की
तफ्सीलात और शिनाख्त के बीच
एक सुर्ख निगाह,
खुबसूरत तसवीर,
बोलता सन्नाटा,
गुजरता मुसाफिर,
प्रस्फुटित पंक्ति,
अर्थपूर्ण अंतराल
तुम्हे छू कर गुजर जाए
और तुम एक बार फिर
देख कर अनदेखा और
सुन कर अनसुना कर दो।