Friday, April 15, 2011

ठूंठ

उस ठूंठ को देखा है मैंने कई बार
इसी तरह
कड़ी धूप में, बर्फीली सर्दी में
बस ऐसे ही खड़े-
निर्विकार, निर्लिप्त।

इस पेड़ की टूट गई हैं सारी पत्तियां
ठूंठ हो गई हैं सारी टहनियां
झर गई है कोपलें
तिक्त हो गया है सारा सौंदर्य।

फिर भी शायद
अपनी जड़ों को धरती में संजोये
उनमे थोड़ी बहुत,
टूटी फूटी जीजिविषा बचाए
इस धूप में खड़ा है वो पेड़।

1 comment:

  1. बहुत कुछ कह दिया आपने ने इस कविता में...

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