Thursday, August 25, 2011

कैनवास

बड़ी बेतक्कलुफी से उसने सामने पड़े कैनवास पर पानी का जग उढ़ेल दिया . लाल , पीले , हरे और नीले रंग गहराते , फीके पड़ते मानो अतीत , वर्तमान और भविष्य को गडमड कर चले . टप्प टप्प कर एक एक बूँद रंगीन छीटों से निर्मला के सुन्दर पावों पर इन्द्रधनुषी रंग बिखेरने लगे . निर्मला शांत, स्तब्ध, एकदम निर्विकार सी अपने उस कल्पना जगत के झलक की रंगीन बर्बादी को निहारती रही.

उमेश कल ही लन्दन से लौटा था. कारोबार के सिलसिले में अब वो महीनों घर से बाहर रहता. आता भी तो चाँद घंटों के लिए - शायद इसलिए की उसकी जिम्मेवारियां कभी कभी उसके अल्ट्राबिजी शेडयूल पर शर्मिंदगी और उपेक्षा की नज़रें गड़ा देती. तब उमेश निर्मला को ऐसे चूमता मानो उन सिमटे लम्हों में वो अपनी ज़िन्दगी का सारा प्यार, निर्मला के प्रति अपनी सारी संवेदनाएं उसे सौंप कर मुक्त होना चाहता हो. और फिर अचानक सब शांत, सब चुप - एक पसरा सन्नाटा, निरर्थक अंतराल.

निर्मला ने धीरे धीरे अपनी दुनिया रंगों के बीच समेट ली. भूरे, काले, मरून, बैगनी रंगों के विस्तार में डूबता उसका मन पीले, नीले, लाल, हरे रंगों में बिहंस पड़ता. निर्मला ने रंगों को अपनी साधना, अपनी कल्पना, अपनी कामना और अपना सम्मान बना लिया था. और ये सब एक ऐसे ढर्रे में होता चला गया जहाँ वो न जानते हुए भी जा गिरी और जब उठी तो उसकी दुनिया रंगीन हो चुकी थी.

उमेश और निर्मला ने साथ रहने का फैसला किया था. बारह सालों के रोमांस के बाद उन्हें लगा की इतने बड़े शहर में साथ रहना अधिक सहूलियत भरा होगा. दोस्तों ने इसे प्यार का नाम दिया, परिवारवालों ने पागलपन का. पर इन दोनों ने एक मौन सहमति का - किस बात की, ये शायद खुद भी नहीं जानते.

शाम हो चली थी. निर्मला ने ज़मीन पे चू चुके रंगों की परत को पैर के अंगूठे से सहलाया. ज़मीन पर एक विचित्र से रंग की छाप बन रही थी - ऐसा रंग जिसे नाम न दिया जा सके; सभी रंग थे उसमे पर किसी एक का स्वतंत्र रूप नहीं था. उमेश और निर्मला पहले हर शाम, साथ में खिड़की के आमने सामने बैठे, क्षितिज को निहारते, सूरज को डूबते देखते. साथ ही चाय की अंतिम घूँट लेते. अब तो याद भी नहीं की पिछली शाम साथ कब गुजरी थी.

कॉल बेल बजी. निर्मला ने अनमने भाव से दरवाज़े की ओर कदम बढाया, की होल से देखा. हलके फिरोजी रंग की शर्ट की बटन खोलता, टाई ढीली करता उमेश बाहर खड़ा था. निर्मला ने दरवाज़ा खोला. उमेश ने ज़मीन पर रंगीन, मटमैले पावों की छाप को देखा, निर्मला को देखा और एक फीकी सी मुस्कान के साथ उसके बालों को सहलाया. पूछा, "चाय नहीं बनाओगी?"

निर्मला कैसे समझाये खुद को की साथ रहकर भी वे एक दूसरे के नहीं हैं. एक स्वतंत्र उच्छ्वास है इस रिश्ते में. निर्मला उमेश को नहीं कह सकती किं आज कहीं मत जाओ. उमेश तो शायद ही कभी किसी से कोई अपेक्षा रखता हो.

निर्मला ने चाय बनाई. उमेश ने चाय के प्याले को कैनवास के एक सिरे पर रखते हुए धीरे धीरे सारी चाय उस पर उढ़ेल दी. एक विद्रूप से भाव को चेहरे पे समेटते हुए कहा, "निर्मला कल से किटी इस घर में शिफ्ट कर रही है. तुम चाहो तो यहाँ रहो या फिर पीछे वाला एक कमरा खाली करवा दो.

निर्मला शांत, निशब्द, चुप, किंकर्त्तव्यविमूढ़ सी बैठी शून्य को निहारती रही. उमेश ने चाय की दूसरी कप पी और डूबते सूरज की अंतिम किरण को निर्मला के चेहरे को चूमते देखा. उसने कैनवास पर काला रंग चढ़ाया और घंटों निर्मला को निहारता, उस पर उँगलियाँ, रंग और ब्रश फिरता रहा.

सुबह हो चुकी थी. निर्मला ने कैनवास पर उमेश की निर्मला को देखा, उमेश को देखा और कुछ देर में अपना सूटकेस पैक कर ले आई. उमेश ने बाहर टाक्सी का इंतजाम कर दिया था.

बगीचे में चोरी से घुसता सिन्दूरी सूरज शर्म से लाल था. निर्मला ने सामान रखा और दोबारा अन्दर आई. किचन से पानी का जग लाया और कैनवास पर दे मारा. कैनवास के अधसूखे रंग कई धाराओं में अट्टहास कर चले.

उमेश स्तब्ध था. उसने धीरे से कहा, "यही परिणति है निर्मला. यही प्यार है शायद. मत जाओ न."

2 comments:

  1. Sabdo ka chanyan accha hai... sampoorn lekh mein ek kasawat aur bhasa uttam hai..

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