"शीला बुआ परित्यक्ता है। हर घर डोलती एक ऐसी आत्मा जिसे लोग उतना ही चाहते हैं जितना नकारते हैं। शीला बुआ बूढी भी है। करीब पैंसठ, सत्तर की तो होगी ही। कानो से सफ़ेद होते बाल बिलकुल सफ़ेद रेशम जैसे लगते हैं। और बुआ मांग में सिन्दूर लगाती है। टहटहाता लाल सिन्दूर।
कल पड़ोस में मंगल की शादी थी। बुआ ने तो उस घर में तब से लगभग रहना शुरू कर दिया था जब से रिश्ते की बात पक्की हो गई थी। बीसियों काम होते हैं शादी वाले घर में। बुआ हर वक़्त वहीँ रहती। सब्जियां छीलती, कपडे धोती, घर साफ़ करती - शादी वाले घर के लगभग सारे मोटे काम करती। पता नहीं उसमे इतनी इतनी ऊर्जा कहाँ से आती थी।
शीला बुआ के पति गंजेड़ी थे। और हर वक़्त नशे में धुत्त रहते। जब तक बुआ के साथ रहते थे, बुआ की केवल हंसती शकल ही देखी थी मोहल्ले वालों ने। पता नहीं बुआ रात में हुए उस लत्तम जुत्तम को कैसे छुपा लेती थी? सुबह चेहरा एकदम पाक साफ़, ऑंखें वैसी ही बिजली सी मचमचाती, होठो पर खुली सी मुस्कान लिए बुआ सारा सारा दिन हँसते हुए निकाल देती थी। शीला बुआ से सभी सहानुभूति जताते थे।
जिस दिन बुआ ने रमेश को तकिये के नीचे रखा हुआ वो कागज पढने को कहा, उस दिन शरद पूर्णिमा थी। शाम का वक़्त था। बुआ ने पूजा की खीर बना कर रख ली थी। इंतज़ार में थी कि पति महोदय घर आ जाएँ तो पूजा कर के खीर को रात में छत पर रख आवें। कहते हैं शरद पूर्णिमा की ओस में स्वर्ग का अमृत बरसता है। उसको खाने से सारे कष्ट दूर होते हैं और घर में खुशहाली आती है। न जाने बुआ किस कष्ट को दूर करना चाहती थी। पति की आदत को या पति को? बहरहाल जो भी हो, शायद भगवान् ने बुआ की सुन ली। रमेश ने पढ़ कर सुनाया कि पति महोदय बुआ को छोड़ कर हरिद्वार चले गए हैं। राम नाम में आगे का जीवन बिताने।
बुआ ने इसे भी हँसते हुए मान लिया था। रमेश को कहा कि उन्हें पता था कि बड़े धर्मात्मा आदमी हैं उनके परमेश्वर। पाप उन्होंने किया कि साथ लेकर गए नहीं, अकेले चले गए।
बुआ उदास नहीं हुईं। उस दिन के बाद बस थोड़ी घुम्मकड हो गईं। मोहल्ले में सरवन साहू की कोठी पे जाती, मच्चन सेठ के यहाँ जातीं, सुरेश वकील के यहाँ रहतीं। उनकी पत्नियों के साथ काफी घुल मिल गई थीं। घर के कामों में हाथ बटा देतीं, उनकी मालिश कर द्तीं। बदले में जो मिलता उसको खीसे निपोरते हुए लेती और हर बार कहती,"अरे अरे इसकी कोई जरुरत नहीं है। मैंने तो अपना घर समझ के किया ये सब। इन्हें पता लगेगा तो बड़ा दुःख होगा।"
पर बुआ थीं दिल की बड़ी साफ़। एक बार रतन साहू के यहाँ उनके बेटे के मुंडन पे दिल छोड़ कर काम किया था। बूढी देह के बावजूद ये एक टान भर के बर्तन अकेले धोये थे बुआ ने। और फिर आटा ख़त्म हो जाने पर अकेले करीब दो सेर गेहूं चक्की पर पीसा था। रतन साहू की बीवी ने बड़ी ही कोताही से पांच रुपये पकडाए थे बुआ को। बुआ ने फिर खीसे निपोरते हुए वही कहा। घर गयी तो देखा कि खाने वाले बर्तन की तली में शायद किसी की अंगूठी गिर गयी थी। बुआ उसी वक़्त भागी गयीं और उसे लौटा दिया।
शीला बुआ ने मंगल की शादी में भी छूट कर काम किया था। कल कराह रही थीं बरात लौटने के बाद। फिर भी जब तक घर की बहू को डोली से उतार नहीं लिया और घर भर के चाय नाश्ते का इंतजाम नहीं कर दिया, तब तक घर नहीं आयीं थीं बुआ। बदले में बुआ को मंगल की माँ ने अपनी छोड़ी एक तार तार हुई साड़ी पकड़ा दी। बुआ ने फिर वही कहा।
रात में बुआ के घर काफी हंगामा हुआ। मंगल समेत मंगल के घरवालों ने बुआ का दरवाजा पीट पीट कर बुआ को रात ग्यारह बजे जगा दिया। दस बजे मुझे याद है, बुआ कराहते कराहते शायद सो गयीं थीं। और फिर सब ने अपनी अपनी इच्छा के मुताबिक लात जूते रसीद दिए। बुआ सिर्फ इतना ही कह रही थीं, "मैंने कुछ नहीं लिया। चाहो तो मेरे घर की तलाशी ले लो।
आज सुबह घर से गायब दस हज़ार की पोटली मंगल के सुहाग सेज के तकिये के नीचे मिली। बुआ तो कब का जा चुकी हैं। उनकी अंत्येष्टि भी पता नहीं कौन करेगा? कोई करेगा भी या नहीं।
बस अभी ही कुछ लोगों ने मुनिसिपलिटी वालों को फ़ोन किया है। शायद बुआ को कूड़े वाले ले जाएँ। पता नहीं क्या होगा?"
मैंने चुप चाप बुआ के घर से अपनी गुडिया उठा ली थी उस दिन। आज अचानक सब कुछ याद आ गया। बीस सालों बाद। मंगल की माँ के मरने पे। मंगल के घर पे उसकी शादी के बाद ये पहला काज था। उसकी स्त्री ने कोई बच्चा नहीं जना की कोई और काज भी हो। आज मंगल ने दुकान पर अपने बाऊजी से कहा था, "बाऊजी दस हज़ार का हिसाब गड़बड़ है।" मैं सामान लेने गई थी।
सेठ छगनलाल ने इतना ही कहा, "देख बेटा, कहीं तेरी माँ के कमरे मेंउसके तकिये के नीचे न हो।"
और मेरे सामने बुआ का मुस्काता चेहरा, उसकी सिन्दूर से लहलहाती मांग उभर आई।
hmmmmmmmmmmmmmmmm..........
ReplyDeletegoal keeper is nvr known for hw manygoals he save but always blamed for the goal he misses...
Ms./Mr. Unknown,
ReplyDeleteA warm welcome and thanks for visiting.
There is life beyond the number of saved and missed goals in a goalkeeper's life. Also, the passive reception of blames by him ("is blamed")is totally meaningless if the active self perception of the goalkeeper absolves him/her of the blame. Life is about an eternal quest within oneself. One who can answer him/herself wins the goals he/ she missed eventually.
Having said so, it would have been great if i could relate your comment to the piece.
Do keep visiting.
ye kis parivesh ki kahaani hai ? aapka parivesh kabhi aisa raha tha kya ?
ReplyDeleteNice piece Shikha (if I may call I by that name). Amidst the daily chores of life , we have literally lost the passions we carried as teenagers. Love to read your posts. Keep writing. Feels great!
ReplyDeleteThank you Manisha, for dropping by and making me smile. Would love to have you as a regular visitor.
ReplyDeleteVery apt. blunt yet sharp!! Love the way you write!! Awesome n appalling! Random thoughts often disturbs the pattern of chaos but Kudos! Well expressed!! Keep it up gal!! :)
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