Sunday, September 1, 2013

हसिये का न्याय

जब से मुनिया का मरद गुजरात गया, उसके अन्दर अजीब अजीब सा होता रहता था. अब गुजरात में किसोरी को तो मिल में नौकरी मिल गयी पर ऐसे थोड़े ही मिली। मुनिया मिलकर आई थी मिल मालिक से. तब किसोरी भी साथ था उसके। किसोरी तब भी था जब गुजरात जाने के लिए घर में पैसे नहीं थे. वही लेकर गया था मुनिया को - बिसेसर सेठ के पास. १००० रुपये मिले थे तब. मुनिया अपने किये पर पता नहीं क्या करती रहती थी इन दिनों? पछतावा कि गर्व? पर हो गयी थी बड़ी अजीब। 

अब उसी दिन आँगन के चौपाले पर बैठी थी. सेठ बिसेसर का लठैत आया था उस दिन उसके खेत का बटैया देखने। कुछ तो ऊटपटांग  कहा उसने। बिफरी मुनिया ने उबलता हुआ मांड लठैत पर दे मारा। वहीँ दूसरे दिन मानसचंद हलवाई की दुकान पर भरी जेठ की दुपहरी मुनिया रेडियो पर फ़िल्मी गाने सुनती रही, बजाती रही.

मुनिया का पति जब वापस आया था छुट्टियों में तो दिन भर भुनभुनाती रहती थी वो. किसोरी-मुनिया की गृहस्थी अब केवल सांकेतिक प्रतिमानों पर टिकी थी. और पता नहीं क्यों मुनिया को लग गया था कि अबकि जब किसोरी जाएगा तो आएगा नहीं। वह द्वंद्व में थी कि इस कीड़े को दिमाग में पनपने दे या अपना दिमाग ही बदल ले. कुल मिलाकर दिमाग ही तो था उसके पास जो उसका अपना था.

किसोरी  उस दिन खेत की  मुंडेर के चक्कर लगाकर  लौटा तो काफी गुस्से में था. आते ही आटा गूंथती मुनिया की पीठ पर एक लात जड़ दिया।
"बिसेसर के पास तो मैंने भेजा था तुझे, रांड, तेरी हिम्मत कैसे हुई ऊ मनसवा के पास जाने की."

मुनिया ने उसी दिन भौंथे हसिये से अपना सर काट लिया था.

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