Wednesday, June 4, 2014

एक बार फिर....

मुझे लेफ्ट, राइट, लिबरल आदि इत्यादि की परिष्कृत भाषा 
कैंपस के उस कैफ़े तक समझ आती थी 
जहाँ न तो 7 वर्षीय छोटू गिलास में चाय परोसता घर संभालता था   
न ही मैली साड़ी में पगलिया अर्ध नग्न महाविद्यालय की सड़क पर
हंसती रोती बाल नोचती थी.

जिम और पार्लर जाकर नारीत्व खरीदी आयीं संभ्रांत नारियां
नारीवाद के नारे  को ब्लैक गोगल्स के साथ सर पे चढ़ाये
अमुक टीवी चैनल के अमुक स्लॉट में विछारधारा का संघर्ष छांटती
जब कुछ  चुनिंदा वाक्यों में चुप्पी ओढ़ लेती हैं तो
कैसे जस्टिफाई करूँ सारे वाद विवाद प्रतिवाद?
कैसे मान लूँ कि  कलम में ही क्रांति है?

लेफ्ट राइट लिबरल की पीत राजनीति के बीच बंटी
उस छद्म सर्वहारा के लिए छद्म पीड़ा और छद्म क्रान्ति
अचानक चुप, शांत, मौन, सन्नाटे में सनी -
मेरी समझ से परे, मेरे बुर्जुआ दिमाग के बाहर
मोम क्रांति से चिकनी सड़क पर  फिसलती जाती है.

शायद सही समय पर रानी, संगीता, लीला, कान्ति बलात्कृत नहीं  हुई
सही समय पर उन्होंने या उनमे से किसी एक ने मर्द ज़ात की मर्दानगी को उकसाया नहीं
कुछ महीने पहले पीड़िता नहीं हो सकती थी?
साली, छोटी जात! TRP का हिसाब  समझ नहीं आया?
बेशर्म! पूछती है, "निर्भया को न्याय तो मुझे क्यों नहीं?'

लेफ्ट लिबरल पोस्टमॉडर्न पोस्टस्ट्रक्टुरल कम्युनिस्ट कामरेड्स
बड़ी बड़ी भीषण शब्दावली की क्रांति से लैस छोटे छोटे कमेंटी कुनबों में
लगातार यहाँ वहां सर्वहारा का संघर्ष  ढूंढ रहे हैं.

घटना  के बाद एसिड से जलाये गए अंगों की गंध
संगीता की चीख
रानी की विच्छिन्न हुई देह
लीला  का चुक चुका धैर्य
कांति का लगभग मर चुका आत्मविश्वास -
गंगा मैया की घाट पर 24सों घंटे बिजली के पंखे में सोये राइट के  
'अच्छे दिन' के अच्छे सपनो की गहरी नींद नहीं तोड़ पाते

इंडियन मार्क्स मलाना क्रीम की मलाईदार सांस में
व्हिस्की के विहंसते जाम में
मार्लबोरो और लॉन्गबीच की लम्बी कश से खिंची लम्बी बहस में
हर रोज़ साम्यवाद की लाल शाम ढूंढ रहा है.

और यहां संगीता, लीला, रानी, कांति और न जाने कौन कौन
हर मिनट हर सेकंड
घर की दहलीज़ के अंदर
चौखट के बाहर
ऑफिस के चैंबर्स  के बीच
लिफ्ट में
बस में
ट्रेन में
कैब में
बाजार में
एकांत में
भीड़ में
चाऊमीन खाये पगलाए लड़कों को
तरह तरह से उकसा  रही है 

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