पावस की तपती दुपहरी में
आँखें खुली तो पाया खुद को
खुद में पाया अकेला -
नितांत अकेला ।
ठन्डे पानी की आस में,
तपती दुपहरी में
अमलतास की ठंडी छाँह की आस में
हलक सूखता, बदन टूटता, देह निढाल।
मन थका सा -
कातर पंछी की तरह
तेज़ रफ़्तार में दौड़ता ।
मन-
कितना अजीब है इसका अस्तित्व
जो चाहता है वह करवाता है
जो सोचता है वह होने पर मजबूर करता है
उस दिन,
तपती धुप में तपते तन पर
एक बार फिर मन का पहरा था
न जाने क्यूँ क्या सोचकर
मन में कई बातों का, कई भावनाओं का
घना कुहरा था।
विचलित मन -
परेशान , निरंतर हैरान
मन-स्वयं मेरा ही तो था।
अचानक प्यास बुझ गई।
छांह की आस तृप्त हो गई।
मन की गाछ हरी हो गई।
शायद इसलिए की अनुभव हुआ
मन का अस्तित्व शाश्वत नहीं
मन का वजूद सही मायने में
कोई वजूद है ही नहीं।
सम्पूर्ण कविता बहुत उम्दा है , शब्दों का चयन और विन्यास विशिस्ट है....
ReplyDelete@akhilesh, Thanks.
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