हरे पत्तों से छान कर गिरती बूंदें
आकाश से सीधे ज़मीन पर गिरती बूंदें
तनों के तन से सरककर फिसलती बूंदें
आखिर, विलीन हो जाती है।
विलीन हो जाती हैं
छोटे छोटे गड्ढों में
घुल मिल जाती हैं
नदियों की कल कल में
बह कर मचल जाती हैं
समुन्दर की लहरों में ।
आखिर विलीन हो जाती हैं बूंदें-
ऐसी गुम होती हैं की
जमीन की सोंधी गंध
आकाश की स्वछन्द महक
पत्तों की हरी खुशबू
सब कुछ
समुन्दर के खारे पानी में
सागर को और भी नमकीन
और भी ग़मगीन बना कर
अपना अहम्, अपना स्वयं
अपना "मैं"
समुद्र की अटल गहराइयों में
समा देती हैं।
अपना अस्तित्व
सार्थक कर जाती हैं.
बेहद संजीदा...
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